Saturday, March 12, 2011

ग़ज़ल


काँटों की डगर भी उनके लिए, फूलों की सवारी होती है.
बचपन से जिनके कांधों पर, पड़ी ज़िम्मेदारी होती है.

सच्चाई तो सीधे साधे से लहजे में बयां हो जाती है.
एक झूठी कहानी कहने में अक्सर दुशवारी होती है.

सर कट जाने के डर से क्यों, सब सर को झुकाए बैठे हैं?
सुनते थे, एहले हिंद को इज्ज़त,जान से प्यारी होती है. 

अपनी सारी रातें और दिन, कुर्बान करूँ फिर भी कम है,
उस रात पे जो एक फौजी ने , सरहद पे गुजारी होती है.

पूछा जो किसी ने "नूर" से के "ऊपर से तुम्हें क्या मिलता है?"
हंस के बोले - ऊपर से तो, भारी बमबारी होती है.

ग़ज़ल


वो ज़हर का प्याला बनता है, या आँख का तारा बनता है.
परवरिश तेरी बतलादेगी, क्या तेरा दुलारा बनता है.

धरती अपनी,मेहनत अपनी,गेहत अपनी,लागत अपनी,
फोकट में फसल तुम्हारी क्यों?यह हक तो हमारा बनता है.

ये  राजकुंवर तो पढलिख कर, एक रोज़ पराये  होते  हैं ,
सबसे नाकारा बेटा ही हर माँ का सहारा बनता है.

मस्जिद चमके दीवाली पर,मंदिर में हो सहर-ओ- इफ्तार,
मुश्किल है मगर,सोचो तो सही,क्या खूब नज़ारा बनता है.

तारीख उठा कर देखो "नूर",हर दौर की यह सच्चाई है-
छोटे से शहर का शहजादा,एक रोज़ शहनशा बनता है.

ख्वहिश्


जिसमें औरों की ख़ुशी हो, वो ख़ुशी देना मुझे.
सब ग़मों को घोल दे, ऐसी हंसी देना मुझे .
जिंदगी में साल कितने हैं, कोई परवाह नहीं,
जितने भी हों साल, उनमें जिंदगी देना मुझे.

सरज़मीं


चमक की चाह में,ये सरज़मीं नहीं छोड़ी.
यहाँ की धूप , यहाँ की नमी नहीं छोड़ी.
वो पेड़ आज जो ऊंचाइयों को छूता है ..
ज़रा सा बीज था, जिसने ज़मीं नहीं छोड़ी.