Saturday, March 12, 2011

ग़ज़ल


काँटों की डगर भी उनके लिए, फूलों की सवारी होती है.
बचपन से जिनके कांधों पर, पड़ी ज़िम्मेदारी होती है.

सच्चाई तो सीधे साधे से लहजे में बयां हो जाती है.
एक झूठी कहानी कहने में अक्सर दुशवारी होती है.

सर कट जाने के डर से क्यों, सब सर को झुकाए बैठे हैं?
सुनते थे, एहले हिंद को इज्ज़त,जान से प्यारी होती है. 

अपनी सारी रातें और दिन, कुर्बान करूँ फिर भी कम है,
उस रात पे जो एक फौजी ने , सरहद पे गुजारी होती है.

पूछा जो किसी ने "नूर" से के "ऊपर से तुम्हें क्या मिलता है?"
हंस के बोले - ऊपर से तो, भारी बमबारी होती है.

2 comments:

  1. Nicely put Noor Saheb. When I was in CBI I used to face this question 'upar se kitna milta hai"? Never thought the paradox of man of integrity could be express so beautifully poetically. Thanks for drawing me to your blog Sir.

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  2. Thanks Bigyan Mihir...thanks a lot. I will start posting the poetry here.:)

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